आकाश की इस उड़ान में
उडाता रहा मै रोज़ अपने परों को फैलाकर
असक्षम्ताओं के गड्ढों को लाँगकर
ऊँची ऊँची उड़ान भरने की चाहत में
उडाता रहा मै रोज़ अपने परों को फैलाकर
परों पे अटके धुल के कण, झटककर उन्हें,
ख्वाइशों के पोटले को दाबे अपने परों में
जलती खुदगर्ज़ दुनिया को छोड़े पैरों तले
हूँ इस रोमांचक उड़ान में मै एक पंछी हौंसला धरे
खेलूँगा, उडूँगा, भरोसा है खुद पर
उडूँगा, खेलूँगा, दुनिया को चिढ़ाकर
खेलूँगा, उडूँगा, हसरतों को जमाकर
उडूँगा, खेलूंगा, अपने परों को फिरसे फैलाकर ||
© आदित्य शंकर
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