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Monday, 14 November 2011

uda.firse.mai


आकाश की इस उड़ान में
उडाता रहा मै रोज़ अपने परों को फैलाकर
असक्षम्ताओं के गड्ढों को लाँगकर

ऊँची ऊँची उड़ान भरने की चाहत में
उडाता रहा मै रोज़ अपने परों को फैलाकर
परों पे अटके धुल के कण, झटककर उन्हें,

ख्वाइशों के पोटले को दाबे अपने परों में
जलती खुदगर्ज़ दुनिया को छोड़े पैरों तले
हूँ इस रोमांचक उड़ान में मै एक पंछी हौंसला धरे 

खेलूँगा, उडूँगा, भरोसा है खुद पर
उडूँगा, खेलूँगा, दुनिया को चिढ़ाकर
खेलूँगा, उडूँगा, हसरतों को जमाकर
उडूँगा, खेलूंगा, अपने परों को फिरसे फैलाकर ||

© आदित्य शंकर

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